[151+] Tulsidas Ke Dohe Famous Dohe Of Goswami Tulsi Das With Hindi Meaning – तुलसीदास के दोहे

Top Goswami Tulsidas Ke Dohe 2020: आपने महान कवि तुलसीदास जी के बहुत सरे दोहे पढ़े और सुने होंगे। गोस्वामी तुलसीदास भारत के एक बेहद सम्मानित संत रहे है, अपने दोहों के दम पर आज भी वह जिन्दा है। आइये आज उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ दोहे पर नजर डाले। यहां हम आपको तुलसीदास जी के ऐसे दोहों का बड़ा संकलन 151+ Tulsidas Ke Dohe लेकर आए हैं,जो के तुलसीदास जी द्वारा बखान जिनमें आज की परिस्थियां दिखाई देती हैं।

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इन दोहों में से कुछ दोहे ऐसे भी हैं, जिनमें जीवन को सही तरिके से जीने की सबक दी गई है, जो के आज के वक़्त में भी पूरी तरह लागू होती है। हम आपको बता दें की, श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती मनाई जाती है। आइए, जानते हैं कि कैसे इतने वर्ष पहले तुलसीदास जी द्वारा रचे गए दोहे, आज भी प्रासंगिक हैं।

तुलसीदास के महान रचनाओं में “रामलला नहछू”, “गीतावली”, “वैराग्य संदीपनी” और “हनुमान बाहुक” वगैरह शामिल हैं. जिन्होंने पूरे विश्व में अपनी चमक बिखेरी. गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म राजपुर में हुआ था और इनके पिता का नाम श्रीधर था।गोस्वामी तुलसीदास के दोहे का अर्थ बहुत ही उपयोगी हैं। कोई भी व्यक्ति इनका पालन करके अपना जीवन सुधार सकता है और एक काफी सफल व्यक्ति बन सकता है. उन्होंने हमेशा अपनी रचनाओ से लोगों को एक नयी रास्ता दिखने की कोशिश की।

तुलसीदास जी के एक महान कवि और लेखक बनने से पहले उनका नाम “तुलसीराम” था। कहते हैं उनका अपनी पत्नी के साथ झगडा रहता था। इसी वजह से उनकी पत्नी अपने मायके गयी हुयी थी. एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी को अपनी पत्नी की याद आई और वो सीधा यमुना नदी को पार करके उसके गाँव पहुँच गए। जब वो वहां पहुंचे उस वक़्त अँधेरी रात थी और मौसम बहुत खराब था।

फिर भी तुलसी जी सीधा अपनी पत्नी रत्नावली के कमरे में जा पहुंचे. उन्हें अचानक इतने भयानक रात में आया देख उनकी पत्नी घबरा गयी। जिसके वजह से उन्होंने तुलसीदास को बुरा भला कहा. तुलसीदास जी ने उन्हें अपने साथ चलने को कहा. लेकिन उनकी पत्नी ने साथ ना जाने की बात कही। जब तुलसी जी ज्यादा आग्रह करने लगे तो उनकी पत्नी ने एक दोहे के माध्यम से तुलसीदास जी को समझाया की मेरे शरीर से इतना प्रेम, यह तो एक दिन पूरी तरह से नष्ट होकर मिटटी में मिल जाएगा।

अगर आप अपना जीवन सफल बनाना चाहते हो तो शरीर का मोह माया छोड़कर भगवान् राम जी की भक्ति में लीन हो जाओ। इससे आप इस भवसागर से पार हो जाओगे। कहते हैं उनकी इस बात ने गोस्वामी तुलसीदास जी के मन को झकझोर कर रख दिया और वो पूरी तरह से राम जी के एक प्रसिद्ध भक्त बन गए। उसके बाद तुलसी दस ने बहुत सारी रचनाएँ लिखीं. जो की विश्व में अपनी एक अलग छाप छोड़ी. तो चलिए हम आपको गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा रचित कुछ प्रसिद्ध दोहों (Tulsidas Ke Dohe) को अर्थ बताने की कोशिश करतें हैं।

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Famous Dohe Of Goswami TulsiDas Ke Dohe With Hindi Meaning

  • आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह, तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।

अर्थ: जिस जगह आपके जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हों, जहाँ लोगों की आँखों में आपके लिए प्रेम या स्नेह ना हो, वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ स्वर्ण मुद्राओं की बारिश ही क्यों न हो रही हो।

  • मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर। अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।

अर्थ: हे रघुवीर, मेरे जैसा कोई दीनहीन नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई दीनहीनों का भला करने वाला नहीं है। ऐसा विचार करके, हे रघुवंश मणि, मेरे जन्म-मृत्यु के भयानक दुःख को दूर कर दीजिए।

  • मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक, पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है । अर्थात जो व्यक्ति कहीं भी किसी समूह का नेतृत्व कर रहा है, उसको चाहिए कि उसके सभी सहचरों का अनुकूल पालन पोषण हो इसकी भी वह चिंता करें। यही गुण व्यक्ति को व्यक्तित्व में रूपांतरित कर देती है ।

  • जब काहू कै देखहिं बिपती, सुखी भए मानहुॅ जग नृपति। स्वारथ रत परिवार विरोधी, लंपट काम लोभ अति क्रोधी।

अर्थ: वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे हीं दुनिया के राजा हों। वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी, काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं।

  • आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह, तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।

अर्थ: जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों और उन लोगों की आँखों में आपके लिए न तो प्रेम और न हीं स्नेह हो। वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की हीं वर्षा क्यों न होती हो।

  • सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।

अर्थ: गोस्वामी जी का कहना है कि मंत्री वैद्य और आपके गुरु यदि भय के कारण डर के कारण यदि हितकारी अप्रिय वचन बोलने से डर कर क्रमशः राजा , रोगी और शिष्य से प्रिय वाक्य कहने को मजबूर हों तो इससे शीघ्र ही इन तीनो का नाश तय है। अतः एक समझदार व्यक्ति को चाहिए कि वह अप्रिय हितकारी वचनों को सुनने का भी धैर्य रखे।

  • तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक, साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य का साथ देती है। ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और राम (भगवान) का नाम।

  • कोउ नृप होउ हमहिं का हानि, चेरी छाडि अब होब की रानी।

अर्थ: कोई भी राजा हो जाये-हमारी क्या हानि है?मैं अभी दासी हूँ तो नए राजा के बनने से दासी से क्या रानी बन जाऊंगी ! यह उस मानसिकता का परिचायक सूत्र वाक्य है जहाँ व्यक्ति को तब तक फर्क नहीं पड़ता जब तक आंच उस तक नहीं आ जाये । जब बात खुद पर आती है फिर विरोध करने की हिम्मत नहीं रह जाती

  • प्रभु जानत सब बिनहि जनाएँ, कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, प्रभु तो बिना बताये हीं सब जानते हैं अतः संसार को प्रसन्न करने से कभी भी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती।

  • लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल, जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल।

अर्थ: क्रोध सभी पापों का मूल है। क्रोध के वशीभूत मनुष्य कोई भी अनुचित काम कर लेता है। और तो और क्रोधी मनुष्य संसार में स्वयं सहित सबका अहित ही करता है । अतः व्यक्ति को क्रोध नहीं करना चाहिए। tulsidas ke dohe

  • कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।

अर्थ: जैसे काम के अधीन व्यक्ति को नारी प्यारी लगती है और लालची व्यक्ति को जैसे धन प्यारा लगता है। वैसे हीं हे रघुनाथ, हे राम, आप मुझे हमेशा प्यारे लगिए।

Tulsidas Ke Dohe In Hindi

  • सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, देवता, आदमी, मुनि, सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं।

  • उदासीन नित रहिअ गोसांई, खल परिहरिअ स्वान की नाई।

अर्थ: दुष्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिये।

  • खलन्ह हृदयॅ अति ताप विसेसी, जरहिं सदा पर संपत देखी। जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई, हरसहिं मनहुॅ परी निधि पाई।

अर्थ: दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है। वे दुसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं। दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैं जैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो।

  • हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता। रामचंन्द्र के चरित सुहाए, कलप कोटि लगि जाहि न गाए।

अर्थ: भगवान अनन्त है, उनकी कथा भी अनन्त है, संत लोग उसे अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं। श्रीराम के सुन्दर चरित्र करोड़ों युगों मे भी नही गाये जा सकते हैं.

  • सुख संपति सुत सेन सहाई।जय प्रताप बल बुद्धि बडाई, नित नूतन सब बाढत जाई।जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।

अर्थ: तुलसी जी कहते हैं कि, सुख, धन, संपत्ति, संतान, सेना, मददगार, विजय, प्रताप, बुद्धि, शक्ति और प्रशंसा जैसे जैसे नित्य बढते हैं, वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता हैै।

  • काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान, तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान।

अर्थ: जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा, अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं। तबतक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक हीं जैसे होते हैं।

Goswami Tulsidas – गोस्वामी तुलसीदास के दोहे

NameGoswami Tulsidas / गोस्वामी तुलसीदास (tulsidas ke dohe)
Born13 August 1497, Rajapur, a town of Chitrakoot district, Uttar Pradesh, India
DiedAugust 1623 (aged 125–126), Assi Ghat, Varanasi, Awadh, India
OccupationPoetry, Atheism, Mysticism, Syncretism
NationalityIndian

श्री तुलसीदास जी हिन्दी साहित्य केएक बहुत ही महान कवि थे। और इन्होनें ही श्री रामचरितमानस की रचियता की थी। तुलसीदास जी भारत ही नहीं बल्कि विश्व के महान साहित्यिक कवियों में जाने जाते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान राम जी के भक्ति के लिए मशहूर हैं। और श्रीरामचरितमानस (Ramcharitmanas) महाकाव्य के लेखक के रूप में भी जाने जाते है।

अभी आप tulsidas ke dohe hindi meaning के बारे में इस पोस्ट पर पढ़ रहे है हमारे द्वारा हम आपको इस पोस्ट में तुलसीदास जी की दोहावली (Tulsi Dohawali) के सफलता की राह दिखाते हैं गोस्वामी तुलसीदास के दोहे और अर्थ बताने का भरपूर रहे है।

यह दोहे (Tulsidas ke Dohe) आपके जीवन में सकरात्मक ऊर्जा को प्रवाहित करेंगे और साथ ही यह दोहे आपके जीवन को प्रेरणा से भरने में भी सहायक होंगे। तो आइये, आगे जानते है तुलसीदास जी के दोहे (Tulsidas Ji ke Dohe Hindi) सार सहित विस्तार से:

Tulsi Das Ji Ke Dohe | गोस्वामी तुलसी दास जी के दोहे

  • आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई, जाकर चित अहिगत सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।

अर्थ: मित्रता के बारे में बताते हुए गोस्वामी जी आगे कहते हैं कि जो सामने उपस्थित होने पर मधुर वचन बोलता हो, चिकनी चुपड़ी बातें करता हो लेकिन पीठ पीछे हमारे प्रति अपने मित्र के प्रति नकारात्मक विचार रखता हो। इस प्रकार सांप के समान चित वाले कुमित्र का परित्याग करने में ही भलाई है।

  • सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं, माया कृत परमारथ नाहीं।

अर्थ: इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख और दुख, माया झूठे हैं। और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं।

  • सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत। श्री रघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।

अर्थ: हे उमा, सुनो वह कुल धन्य है, दुनिया के लिए पूज्य है और बहुत पावन (पवित्र) है, जिसमें श्री राम (रघुवीर) की मन से भक्ति करने वाले विनम्र लोग जन्म लेते हैं।

  • सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ, भूलेहु संगति करिअ न काउ। तिन्ह कर संग सदा दुखदाई, जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।

अर्थ: अब असंतों का गुण सुनें, कभी भूलवश भी उनका साथ न करें। उनकी संगति हमेशा कश्टकारक होता है। खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है।

  • बिधिहुॅ न नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अघ अवगुन खानी।

अर्थ: स्त्री के हृदय की चाल ईश्वर भी नहीं जान सकते हैं। वह छल, कपट, पाप और अवगुणों की खान है।

  • सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा, गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा। अगुन अरूप अलख अज जोई, भगत प्रेम बश सगुन सो होई।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है मुनि पुराण पन्डित बेद सब ऐसा कहते। जेा निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है।

  • तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर, बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर।

अर्थ: गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मीठे वचन से सर्वत्र सब ओर प्रसन्नता और खुशी फैलती है सुखकारी भावनाओं का प्रसार होता है। दूसरों को वश में करने का भी एकमात्र मंत्र मीठे वचन ही हैं । अतः मानव मात्र को कठोर वचन का परित्याग करके मधुर वचन बोलना चाहिए।

  • रहा प्रथम अब ते दिन बीते, समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।

अर्थ: पहले वाली बात बीत चुकी है, समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।

  • सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर, होहिं बिषय रत मंद मंद तर। काँच किरिच बदलें ते लेहीं, कर ते डारि परस मनि देहीं।

अर्थ: जो लोग मनुष्य का शरीर पाकर भी राम का भजन नहीं करते हैं और बुरे विषयों में खोए रहते हैं। वे लोग उसी व्यक्ति की तरह मूर्खतापूर्ण आचरण करते हैं, जो पारस मणि को हाथ से फेंक देता है और काँच के टुकड़े हाथ में उठा लेता है।

  • सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा, बुध नहिं करहिं अधम कर संगा। कवि कोविद गावहिं असि नीति, खल सन कलह न भल नहि प्रीती।

अर्थ: बुद्धिमान मनुष्य नीच की संगति नही करते हैं। कवि एवं पंडित नीति कहते हैं कि, दुष्ट से न झगड़ा अच्छा है न हीं प्रेम।

  • दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउॅगा, तसि मति फिरी अहई जसि भावी।

अर्थ: महाकवि कहते हैं कि, जैसी भावी होनहार होती है, वैसी हीं बुद्धि भी फिर बदल जाती है।

  • सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू, विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु।

अर्थ: वीर पुरुष युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करते हैं शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपनी महानता अपने प्रताप की डींगे हांकता हैं। अतः कथनी से करनी अधिक महत्वपूर्ण है। कार्यों की सिद्धि केवल बात करने से नहीं होती अतः सफलता की कामना रखने वालों को लक्ष्यसिद्धि हेतु कार्य करना चाहिए।

  • मैं अरू मोर तोर तैं माया, जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया।

अर्थ: में और मेरा तू और तेरा, यही माया है जिाने सम्पूर्ण जीवों को बस में कर रखा है।

  • जपहिं नामु जन आरत भारी, मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी। राम भगत जग चारि प्रकारा, सुकृति चारिउ अनघ उदारा
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अर्थ: संकट में पड़े भक्त नाम जपते हैं तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। संसार में चार तरह के अर्थाथ; आर्त; जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते हैं।

  • सुभ अरू असुभ करम अनुहारी, ईसु देइ फल हृदय बिचारी। करइ जो करम पाव फल सोई, निगम नीति असि कह सबु कोई।

अर्थ: ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है। ऐसा ही वेद नीति और सब लोग कहते हैं। tulsidas ke dohe

  • लोभन ओढ़न लोभइ डासन, सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना। काहू की जौं सुनहि बड़ाई, स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।

अर्थ: लोभ लालच हीं उनका ओढ़ना और विछावन होता है।वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं। उन्हें यमलोक का डर नहीं होता।किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है।

Tulsidas Dohe In Hindi

  • मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन। अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन।

अर्थ: राम मच्छर को भी ब्रह्मा बना सकते हैं, और ब्रह्मा को मच्छर से भी छोटा बना सकते हैं। ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग सारे संदेहों को त्यागकर राम को ही भजते हैं।

  • कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास, जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।

अर्थ: किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है।

  • कुलिस कठोर निठुर सोई छाती, सुनि हरि चरित न जो हरसाती।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, उसका हृदय बज्र की तरह कठोर और निश्ठुर है जो ईश्वर का चरित्र सुनकर प्रसन्न नही होता है।

  • तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक, साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, किसी विपत्ति यानि किसी बड़ी परेशानी के समय व्यक्ति को यह सात गुण ही बचातें हैं व्यक्ति की विद्या या ज्ञान , व्यक्ति की विनम्रता, व्यक्ति की बुद्धि, भीतर का साहस(आत्मबल) , अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत और राम अर्थात ईश्वर में विश्वास।

  • सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानी, सो पछिताई अघाइ उर अवसि होई हित हानि।

अर्थ: अपने हितकारी स्वामी और गुरु की सीख अर्थात नसीहत को ठुकरा कर जो इनका सम्मान नहीं करता है,उसका समय बीत जाने के पश्चात वह ग्लानि से भर जाता है तथा उसका अहित होना तय ही है

  • सासति करि पुनि करहि पसाउ, नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।

अर्थ: तुलसी जी कहते हैं कि, अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः बाद में सेवक पर कृपा करते हैं।

  • तुलसी किएं कुंसग थिति, होहिं दाहिने बाम। कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम। बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास। तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास।

अर्थ: बुरे लोगों की संगती में रहने से अच्छे लोग भी बदनाम हो जाते हैं। वे अपनी प्रतिष्ठा गँवाकर छोटे हो जाते हैं।

ठीक उसी तरह जैसे, किसी व्यक्ति का नाम भले हीं देवी-देवता के नाम पर रखा जाए, लेकिन बुरी संगती के कारण उन्हें मान-सम्मान नहीं मिलता है।

जब कोई व्यक्ति बुरी संगती में रहने के बावजूद अपनी काम में सफलता पाना चाहता है और मान-सम्मान पाने की इच्छा करता है, तो उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती है। ठीक वैसे हीं जैसे मगध के पास होने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम “गया” पड़ गया।

  • नहिं दरिद्र सम दुख जग माॅहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं। पर उपकार बचन मन काया, संत सहज सुभाउ खगराया।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, संसार में दरिद्रता के समान दुख एवं संतों के साथ मिलन समान सुख नहीं है। मन बचन और शरीर से दूसरों का उपकार करना यह संत का सहज स्वभाव है।

  • कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहिं प्रीति समहोई, कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा, सपनेहुॅ जान न दूसर धर्मा।

अर्थ: कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है।पिता सब पर समान प्रेम करते हैं। पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता।

  • काहु न कोउ सुख दुख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता।

अर्थ: कोई भी किसी को दुख सुख नही दे सकता है,कोई भी व्यक्ति किसी और की वजह से दुःख नहीं भोगता है बल्कि हरेक व्यक्ति के जीवन में आया हुआ संकट और दुःख उसके द्वारा किये गए कर्मों के फलाफल ही हैं।

तुलसीदास के दोहे – Tulsidas ke Dohe

हम आपको बता दें की, गोस्वामी तुलसीदास जी एक हिंदू कवि-संत थे जो हिंदी, भारतीय और विश्व साहित्य में सबसे महान कवियों में गिने जाते थे।

वह भक्ति काल के रामभक्ति शाखा के महान कवि भी थे। वह लेखक के रूप में हनुमान चालीसा के रचयिता के रूप में भी जाने जाते थे। उन्होंने कई रचनाये की है। tulsidas ke dohe

तुलसीदास जी ने कई दोहे भी लिखे है उनके दोहे ज्ञान-सागर के समान है जिसमे में डुबकी लगाने पर मनुष्य का उद्धार ही होता है।

उनके tulsi das ke dohe with hindi meaning सकारात्मक ऊर्जा से भरे और प्रेरणादायक है. हमने आपके साथ तुलसीदास जी के 151 से ज्यादा सर्वश्रेष्ठ tulsidas poems in hindi साझा किये है।

तो आइये! हम इन tulsidas ke dohe को अर्थ सहित पढ़ें और इनसे मिलने वाली सीख को अपने जीवन में उतारें।

tulsidas poems in hindi
tulsidas ke dohe poems in hindi
  • तुलसी तृण जलकूल कौ निर्बल निपट निकाज, कै राखै कै संग चलै बांह गहे की लाज।

अर्थ: तुलसी दास जी कहते हैं कि नदी के किनारे पर उगने वाली घास कितना निर्बल और बिलकुल ही काम में न आने योग्य होती है, परन्तु यदि कोई डूबता हुआ व्यक्ति संकटग्रस्त प्राणी उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है पकड़ लेता है , तो वह निर्बल घास भी उसे बचाने का यथासंभव प्रयत्न करती है।

अंत में या तो उसकी रक्षा कर लेती है या टूट कर उसके साथ ही चल देती है। सच्ची मित्रता भी ऐसी ही संकट के समय में साथ देने वाली होनी चाहिए।

  • रज मग परी निरादर रहई, सब कर पद प्रहार नित सहई। मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई, पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।

अर्थ: धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सभी के पैर की चोट सहती रहती है। लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है। बाद में वह राजाओं के आँखों और मुकुटों पर पड़ती है।

  • करहिं जोग जोगी जेहि लागी, कोहु मोहु ममता मदु त्यागी। व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी, चिदानंदु निरगुन गुनरासी।

अर्थ: योगी जिस प्रभु के लिये क्रोध मोह ममता और अहंकार को त्यागकर योग साधना करते हैं, वे सर्वव्यापक ब्रह्म अब्यक्त अविनासी चिदानंद निर्गुण और गुणों के खान हैं।

  • एक पिता के बिपुल कुमारा, होहिं पृथक गुन सील अचारा। कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता, कोउ घनवंत सूर कोउ दाता।

अर्थ: एक पिता के अनेकों पुत्रों में उनके गुण और आचरण भिन्न भिन्न होते हैं। कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है।

  • बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं, गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं। जलधि अगाध मौलि बह फेन, संतत धरनि धरत सिर रेनू।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं। पहाड के सिर में हमेशा घास रहता है। अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है।

  • हरि ब्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना। देस काल दिशि बिदि सिहु मांही, कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, भगवान सब जगह हमेशा समान रूप से रहते हैं और प्रेम से बुलाने पर प्रगट हो जाते हैं. वे सभी देश विदेश एव दिशाओं में ब्याप्त हैं। कहा नही जा सकता कि प्रभु कहाँ नही है।

  • कोउ नृप होउ हमहिं का हानि, चेरी छाडि अब होब की रानी।

अर्थ: महाकवि कहते हैं कि, कोई भी राजा हो जाये, हमारी क्या हानि है।

  • पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद। तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद।

अर्थ: वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं। वे पामर और पापयुक्त मनुष्य शरीर में राक्षस होते हैं।

  • सो केवल भगतन हित लागी, परम कृपाल प्रनत अनुरागी। जेहि जन पर ममता अति छोहू, जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू।

अर्थ: प्रभु भक्तों के लिये हीं सब लीला करते हैं. वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं। भक्त पर उनकी ममता रहती है। वे केवल करूणा करते हैं. वे किसी पर क्रोध नही करते हैं।

Famous Poems Of Tulsidas In Hindi

  • आगें कह मृदु वचन बनाई, पाछे अनहित मन कुटिलाई। जाकर चित अहिगत सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।

अर्थ: जो सामने बना-बनाकर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुरी भावना रखता है। तथा जिसका मन सांप की चाल के जैसा टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है।

  • ग्यान पंथ कृपान कै धारा, परत खगेस होइ नहिं बारा। जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई, सो कैवल्य परम पद लहईं।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार की धार के जैसा है। इस रास्ते में भटकते देर नही लगती। जो ब्यक्ति बिना विघ्न बाधा के इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है वह मोक्ष के परम पद को प्राप्त करता है।

  • देत लेत मन संक न धरई।बल अनुमान सदा हित करई, विपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।

अर्थ: गोस्वामी तुलसीदास जी एक सच्चे मित्र के बारे में बताते हुए कहते हैं कि सच्चा मित्र वह है जो कुछ लेने देने में अपने मन में किसी प्रकार की शंका नहीं रखता हो, तथा संकट की घड़ी में भी अपनी सहज बुद्धि और बल से सदैव अपने मित्र का हित करता हो। श्रुतिओं के अनुसार विपत्ति के समय में भी अपने मित्र पर स्नेह रखने वाला ही सही मायनों में मित्र कहलाने योग्य है।

  • कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।

अर्थ: कलियुग अनेक कठिन पापों का भंडार है जिसमें धर्म ज्ञान योग जप तपस्या आदि कुछ भी नहीं है।

  • सूल कुलिस असि अंगवनिहारे, ते रतिनाथ सुमन सर मारे।

अर्थ: जो व्यक्ति त्रिशूल, बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुष्प बाण से मारे जाते हैं।

  • तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।

अर्थ: यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता। tulsidas ke dohe

  • मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला। काम वात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त नित छाती जारा।

अर्थ: अज्ञान सभी रोगों की जड़ है। इससे बहुत प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते हैं। काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है। क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है।

  • जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि विलोकत पातक भारी। निज दुख गिरि सम रज करि जाना, मित्रक दुख रज मेरू समाना।

अर्थ: जो व्यक्ति अपने मित्र के दुख से दुखी नहीं होता उन्हें देखने से भी पाप लगता है।अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण कण सदॄश दुख को सुमेरू पर्वत के समान जानने वाला ही सच्ची मित्रता का योग्य अधिकारी है। tulsidas ke dohe

  • जेहि ते नीच बड़ाई पावा, सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा। धूम अनल संभव सुनु भाई, तेहि बुझाव घन पदवी पाई।

अर्थ: नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश करता है। आग से पैदा धुंआ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है। tulsidas ke dohe

  • जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते, पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते। तनु धनु धामु धरनि पुर राजू, पति विहीन सबु सोक समाजू।

अर्थ: पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं। शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं।

  • तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग, तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।

अर्थ: इस दोहे में गोस्वामी जी ने सत्संग अर्थात सकारात्मक व्यक्तियों के संग के महत्व का प्रतिपादन यह कहते हुए किया है कि, संसार के सभी सुखों को भी अगर किसी तराजू के एक पलड़े पर रख दिया जाए, तो भी उसके बनिस्पत सत्संग से मिलने वाले लाभ बहुत अधिक ही होंगे।

साथियों सच में व्यक्ति के जीवन में रूपांतरण का सबसे अहम कारक सत्संग अर्थात अच्छे लोगों का साथ होना ही है। जैसे व्यक्तियों के संसर्ग में हम रहेंगे हमारा चित भी क्रमश: उसी ओर झुकने लगेगा।

Tulsidas ke Dohe in Hindi | तुसलीदास जी के दोहे हिंदी में

  • बिनु सतसंग विवेक न होई।राम कृपा बिनु सुलभ न सोई, सत संगत मुद मंगल मूला।सोई फल सिधि सब साधन फूला।

अर्थ: बिना सत्संगति किये व्यक्ति विवेकवान नहीं हो सकता , और भगवान की इच्छा से ही अच्छे लोगों से हमें सत्संग सुलभ होता है । सत्संग ही जीवन और जगत में सभी मंगल और शुभ का मूल है । संसार की सभी सिद्धियों के लिए सत्संगति अत्यंत आवश्यक है । अतः सभी सफलता के अनुगामी वयक्तियों को सत्संगति को अपने जीवन में प्राथमिकता देनी चाहिए।

  • सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना, जद्यपि सो सब भाॅति अपाना। एहि बिधि जीव चराचर जेते, त्रिजग देव नर असुर समेते।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, तब वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्यारा होता है भले हीं वह सब तरह से मूर्ख हीं क्यों न हो। इसी प्रकार पशु पक्षी देवता आदमी एवं राक्षसों में भी जितने चेतन और जड़ जीव हैं। tulsidas ke dohe

  • जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी, नहि पावहिं परतिय मनु डीठी। मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं, ते नरवर थोरे जग माहीं।

अर्थ: गोस्वामी जी कहते हैं कि, ऐसे वीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते, दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृष्टि कभी नहीं जाता और भिखारी कभी जिनके यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटते। ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं।

  • सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन। नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन।

अर्थ: जो सभी इच्छाओं को छोड़कर राम भक्ति के रस में लीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते वही सच्चा भक्त है।

  • सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल, जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।

अर्थ: अमृत मात्र सुनने की बात है किन्तु जहर तो सब जगह प्रत्यक्षतः देखे जा सकते हैं। कौआ, उल्लू और बगुला तो जहां तहां दिखते हैं परन्तु हंस तो केवल मानसरोवर में ही रहते हैं।

  • धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपद काल परखिए चारी।

अर्थ: धैर्य धर्म मित्र और पत्नी इन सब की परीक्षा व्यक्ति पर आये हुए संकट में ही होता है । अर्थात स्वयं तथा स्वयं के सामाजिक संबंधों की असलियत का पता जीवन की कठिन घड़ियों में ही चलता है।

  • जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा, तदपि बिरोध मान जहं कोई।तहं गए कल्यान न होई।
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अर्थ: बिना किसी शंका संकोच के मित्र भगवान पिता और गुरू के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिए परन्तु यदि इन जगहों पर जाने से अपमान होता हो हमारा विरोध होता हो तो ऐसे जगह नहीं जाना चाहिए क्योकिं फिर यह कल्याणकारक नहीं रह जाता।

  • तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर। सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।

अर्थ: सुंदर वेशभूशा देखकर मूर्ख हीं नही चतुर लोग भी धोखा में पर जाते हैं। मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन सांप का खाता है।

  • तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग, सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि इस संसार में भांति भांति के अर्थात विभिन्न व्यवहार स्वभाव और प्रभाव वाले लोग रहते हैं। इस संसार में सुख पूर्वक जीने के लिए हमें सबसे हंस बोल कर अच्छा व्यवहार करते हुए जीवन जीना चाहिए, संसार सागर को पार करना चाहिए । ऐसा करने से जीवन जीना सरल और सुगम हो जाता है।

  • काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान, तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि एक पंडित (विद्वान) व्यक्ति भी यदि कामवासना से ग्रसित हो अहंकार में चूर रहता हो अर्थात अहंकारी हो और उसके मन में सांसारिक चीजों के प्रति घोर लालसा हो, लिप्सा हो, तो वह विद्वान व्यक्ति भी मूर्ख के समान ही है।

Tulsi Das Ke Dohe With Hindi Meaning

  • तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ, तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।

अर्थ: दूसरों की अपकीर्ति अर्थात निंदा करके उनको नीचा दिखा कर स्वयं को प्रतिष्ठित करने का विचार मूर्खता नितांत मूर्खतापूर्ण है क्योंकि दूसरों की निंदा करने वाले व्यक्ति के मुंह में एक दिन ऐसी कालिख लगती है, जिसे किसी भी प्रकार से धोया नहीं जा सकता जिससे छुटकारा पाना असंभव हो जाएगा।

  • कठिन कुसंग कुपंथ कराला, तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला। गृह कारज नाना जंजाला, ते अति दुर्गम सैल विसाला।

अर्थ: खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है. उन कुसंगियों के बोल बाघ, सिंह और सांप की भांति हैं। घर के कामकाज में अनेक झंझट ही बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं।

  • ममता रत सन ग्यान कहानी, अति लोभी सन विरति बखानी। क्रोधि हि सभ कर मिहि हरि कथा, उसर बीज बए फल जथा।

अर्थ: मोह माया में फॅसे ब्यक्ति से ज्ञान की कहानी अधिक लोभी से वैराग्य का वर्णन क्रोधी से शान्ति की बातें और कामुक से ईश्वर की बात कहने का वैसा हीं फल होता है, जैसा उसर खेत में बीज बोने से होता है।

  • पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे।

अर्थ: दूसरों को उपदेश शिक्षा देने में बहुत लोग निपुण कुशल होते हैं परन्तु उस शिक्षा का आचरण पालन करने बाले बहुत कम हीं होते हैं। tulsidas ke dohe

  • भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम। धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।

अर्थ: तुलसी जी कहते हैं कि, जब ईश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान पिता काल के समान और रस्सी सांप के समान हो जाती है।

  • विशई साधक सिद्ध सयाने, त्रिविध जीव जग बेद बखाने।

अर्थ: संसारी, साधक और ज्ञानी सिद्ध पुरुष. इस दुनिया में इसी तीन प्रकार के लोग बेदों ने बताये हैं।

  • तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय। जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, प्रभु पूर्णकाम सज्जनों के शिरोमणि और प्रेम के प्यारे हैं। प्रभु भक्तों के गुणग्राहक बुराईयों का नाश करने वाले और दया के धाम हैं।

  • दुइ कि होइ एक समय भुआला, हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला। दानि कहाउब अरू कृपनाई, होइ कि खेम कुसल रीताई।

अर्थ: ठहाका मारकर हँसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एक ही समय में सम्भव नहीं है। दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कदापि सम्भव नही है।

  • झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चवेना। बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा, खाइ महा अति हृदय कठोरा।

अर्थ: दुष्ट का लेनादेना सब झूठा होता है। उसका नाश्ता भोजन सब झूठ ही होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है. पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विषधर सांप को भी खा जाता है। इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं।

  • भानु पीठि सेअइ उर आगी, स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।

अर्थ: सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये। किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।

  • नौका रूढ़ चलत जग देखा, अचल मोहबस आपुहिं लेखा। बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी, कहहिं परस्पर मिथ्यावादी।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, नाव पर चढ़ा हुआ आदमी दुनिया को चलता दिखाई देता है। लेकिन वह अपने को स्थिर अचल समझता है। बच्चे गोल गोल घूमते है। लेकिन घर वगैरह नहीं घूमते। लेकिन वे आपस में परस्पर एक दूसरे को झूठा कहते हैं। tulsidas ke dohe

  • मातु पिता गुर विप्र न मानहिं, आपु गए अरू घालहिं आनहि। करहिं मोहवस द्रोह परावा, संत संग हरि कथा न भावा।

अर्थ: वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते। खुद तो नष्ट रहते ही हैं. दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं। मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है।

  • तपबल तें जग सुजई बिधाता, तपबल बिश्णु भए परित्राता। तपबल शंभु करहि संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।

अर्थ: तपस्या से कुछ भी प्राप्ति दुर्लभ नही है। इसमें शंका आश्चर्य करने की कोई जरूरत नही है। तपस्या की शक्ति से हीं ब्रह्मा ने संसार की रचना की है और तपस्या की शक्ति से ही विष्णु इस संसार का पालन करते हैं। तपस्या द्वारा हीं शिव संसार का संहार करते हैं। दुनिया में ऐसी कोई चीज नही जो तपस्या द्वारा प्राप्त नही किया जा सकता है।

  • देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई। विपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।

अर्थ: मित्र से लेन देन करने में शंका न करे. अपनी शक्ति अनुसार हमेशा मित्र की भलाई करे। वेद के अनुसार संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह-प्रेम करता है. अच्छे मित्र के यही गुण हैं।

  • सन इब खल पर बंधन करई, खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई। खल बिनु स्वारथ पर अपकारी, अहि मूशक इब सुनु उरगारी।

अर्थ: कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाॅधते हैं। जूट बाॅधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है। वह दुख सहकर मर जाता है। दुष्ट बिना स्वार्थ के साॅप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं।

  • जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी, जीवत सब समान तेइ प्राणी। जो नहि करई राम गुण गाना, जीह सो दादुर जीह समाना।

अर्थ: जिसने भगवान की भक्ति को हृदय में नही लाया वह प्राणी जीवित मूर्दा के समान है। जिसने प्रभु के गुण नही गाया उसकी जीभ मेंढ़क की जीभ के समान है। tulsidas ke dohe

  • सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा, बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा। तो सृजि पालई हरइ बहोरी, बालकेलि सम बिधि मति भोरी।

अर्थ: ईश्वर की चाल अत्यंत विपरीत एवं विचित्र है। वह संसार की सृश्टि उत्पन्न करता और पालन और फिर संहार भी कर देता है। ईश्वर की बुद्धि बच्चों जैसी भोली विवेक रहित है।

  • एक अनीह अरूप अनामा, अज सच्चिदानन्द पर धामा। ब्यापक विश्वरूप भगवाना, तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।

अर्थ: भगवान एक हैं, उन्हें कोई इच्छा नहीं है. उनका कोई रूप या नाम नहीं है। वे अजन्मा औेर परमानंद के परमधाम हैं। वे सर्वव्यापी विश्वरूप हैं. उन्होंने अनेक रूप, अनेक शरीर धारण कर अनेक लीलायें की हैं।

  • काहु न कोउ सुख दुख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता।

अर्थ: कोई भी किसी को दुख-सुख नही दे सकता है। सभी को अपने हीं कर्मों का फल भेागना पड़ता है।

  • बंदउ गुरू पद पदुम परागा। सुरूचि सुवास सरस अनुरागा, अमिय मूरिमय चूरन चारू।समन सकल भव रूज परिवारू।

अर्थ: गुरू के पैरों की धूल सुन्दर सरस और सुगन्धित अनुराग रस से पूरित हैं गुरु की चरणवंदना संजीवनी औषधि का वह चूर्ण है जिसमें संसार के सभी समस्याओं का समाधान है । मैं उस चरण कमल को प्रणाम करता हूँ उसकी वंदना करता हूँ।

Tulsidas Ke Dohe On Ramayana

  • उमा राम सम हित जग माहीं, गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं। सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।

अर्थ: यह दोहा रामायण से ली गई है (भगवान शिव बाबा भोलेनाथ माता पार्वती को भगवान श्री राम की महिमा का अनुश्रवण करवा रहे हैं) इस दोहे के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी ने सांसारिक संबंधों के बारे में एक बहुत ही गूढ़ बात कही है, कि इस संसार में जितने भी संबंध है, सब में कहीं ना कहीं प्रेम अथवा प्रीति का एक कारक स्वार्थसिद्धि भी है। tulsidas ke dohe

  • रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।

अर्थ: महाकवि कहते हैं कि, शत्रु रोग अग्नि पाप स्वामी एवं साॅप को कभी भी छोटा मानकर नहीं समझना चाहिये।

  • को न कुसंगति पाइ नसाई, रहइ न नीच मतें चतुराई।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, खराब संगति से सभी नष्ट हो जाते हैं. नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती हैं। tulsidas ke dohe

  • मन समेत जेहि जान न वानी, तरकि न सकहिं सकल अनुमानी। महिमा निगमु नेति कहि कहई, जो तिहुॅ काल एकरस रहई।

अर्थ: जिन्हें पूरे मन से शब्दों द्वारा ब्यक्त नहीं किया जा सकता-जिनके बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता। जिनकी महिमा बेदों में नेति कहकर वर्णित है और जो हमेशा एकरस निर्विकार रहते हैं।

  • भगति निरुपन बिबिध बिधाना, क्षमा दया दम लता विताना। सम जम नियम फूल फल ग्याना, हरि पद रति रस बेद बखाना।

अर्थ: अनेक तरह से भक्ति करना एवं क्षमा, दया, इन्द्रियों का नियंत्रण, लताओं के मंडप समान हैं. मन का नियमन अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणधन, भक्ति के फूल और ज्ञान फल है

  • टेढ जानि सब बंदइ काहू, वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।

अर्थ: गोस्वामी जी कहते हैं कि, टेढा जानकर लोग किसी भी व्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं। टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है।

  • भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी, बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी। पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता, सत संगति संसृति कर अंता।

अर्थ: भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है। लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है। पुनः बिना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नहीं मिलती है। संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है।

  • बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं, गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं। जलधि अगाध मौलि बह फेन, संतत धरनि धरत सिर रेनू।

अर्थ: बडे लोग अपने से छोटों पर प्रेम करते हैं।पहाड अपने सिर पर हमेशा तृण (घास) धारण करता है। अथाह सागर के मस्तक पर भी फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल के कण रहतें हैं। इस दोहे के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी महान बनने का रहस्य उद्घाटित करते हुए कह ईशारा कर रहें हैं tulsidas ke dohe

कि संसार में बड़ा वही हो सकता है. जिसमें अपने से छोटे तथा सामान्य व्यक्तियों को भी अपने सर पर बिठा कर सम्मान देने की शक्ति और स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण मानने का धैर्य हो। एक वाक्य में महानता का सूत्र अपने से कमजोर और नीचे वाले व्यक्तियों को भरपूर सम्मान देना ही है ।

  • सेवक सुख चह मान भिखारी व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी, लोभी जसु चह चार गुमानी नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी।

अर्थ: सेवक सुख चाहता हो भिखारी सम्मान चाहता हो व्यसनी धन और ब्यभिचारी सदगति चाहता हो,लोभी यश की कामना करता हो तथा अभिमानी अर्थ धर्म काम और मोक्ष चाहते हो तो यह यह नितांत असंभव है ।इसकी सिद्धि असंभव को संभव करना ही है।

Tulsidas Dohe In Hindi – गोस्वामी तुलसीदास के दोहे

  • पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद, ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।

अर्थ: जो हमेशा दूसरों से द्रोह अथवा झगड़ा करता हो पर स्त्री और दूसरे के धन को प्राप्त करने की लालसा रखता हो तथा सदैव दूसरों की निंदा में ही अपना समय व्यतीत करता हो वह मनुष्य के शरीर में राक्षस ही है। tulsidas ke dohe

  • कसे कनकु मनि पारिखि पायें, पुरूश परिखिअहिं समयॅ सुभाए।

अर्थ: सोना कसौटी पर कसने और रत्न जौहरी के द्वारा ही पहचाना जाता है। पुरूष की परीक्षा समय आने पर उसके स्वभाव और चरित्र से होती है।

  • जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि विलोकत पातक भारी। निज दुख गिरि सम रज करि जाना, मित्रक दुख रज मेरू समाना।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होता है उसे देखने से भी भारी पाप लगता है। अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान समझना चाहिए।

  • अनुचित उचित काजु किछु होउ, समुझि करिअ भल कह सब कोउ। सहसा करि पाछें पछिताहीं, कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।

अर्थ: किसी भी काम में उचित अनुचित विचार कर किया जाये तो सब लोग उसे अच्छा कहते हैं। बेद और विद्वान कहते हैं कि जो काम बिना विचारे जल्दी में करके पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।

हम इस पोस्ट के माध्यम से विश्व प्रसिद्ध Tulsidas Ke Dohe With Hindi Meaning के बता रहे हैं. जो आपको जीवन जीने का सही तरीका एवं सही विचारों का पालन करने में सहयोग करेगा। यहां Tulsidas Ke Dohe पढ़ें अर्थ के साथ विस्तार रूप में और जीवन का आनंद उठाएं।

  • बैनतेय बलि जिमि चह कागू, जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू। जिमि चह कुसल अकारन कोही, सब संपदा चहै शिव द्रोही। लोभी लोलुप कल कीरति चहई, अकलंकता कि कामी लहई। tulsidas ke dohe

अर्थ: यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे, अकारण क्रोध करने वाला अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने वाला सब तरह की संपत्ति चाहे, लोभी अच्छी कीर्ति और कामी पुरूष बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छाएं व्यर्थ हैं।

  • जानें बिनु न होइ परतीती, बिनु परतीति होइ नहि प्रीती। प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई, जिमि खगपति जल कै चिकनाई।

अर्थ: किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की कमी से प्रेम नहीं होता। प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है। tulsidas ke dohe

  • जिन्ह कें अति मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई, कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।

अर्थ: जिनके स्वभाव में इस प्रकार की सहज बुद्धि न हो, वे मूर्ख केवल हठात ही किसी से मित्रता करते हैं। सच्चा मित्र कुपथ अर्थात गलत मार्ग पर चलने से रोक कर अच्छे रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है। एक सच्चा मित्र अपने मित्र के अवगुणों को छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है।

  • जोग वियोग भोग भल मंदा, हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा। जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू, संपति बिपति करमु अरू कालू।

अर्थ: मिलाप और बिछुड़न, अच्छे बुरे भोग ,शत्रु मित्र और तटस्थ – ये सभी भ्रम के फांस हैं। जन्म, मृत्यु संपत्ति, विपत्ति कर्म और काल ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं।

  • काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि, तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।
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अर्थ: गोस्वामी जी कहते हैं कि, भरत की मां हंसकर कहती है। कानों, लंगरों और कुवरों को कुटिल और खराब चालचलन वाला जानना चाहिये।

  • पर संपदा बिनासि नसाहीं, जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं। दुश्ट उदय जग आरति हेतू, जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।

अर्थ: तुलसी जी कहते हैं कि, वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नष्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करके ओला भी नाश हो जाता है। दुष्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है।

  • झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें, जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने। जेहि जाने जग जाई हेराई, जागें जथा सपन भ्रम जाई।

अर्थ: ईश्वर को नही जानने से झूठ सत्य प्रतीत होता है. बिना पहचाने रस्सी से सांप का भ्रम होता है। लेकिन ईश्वर को जान लेने पर संसार का उसी प्रकार लोप हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम मिट जाता है।

  • तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि। tulsidas ke dohe

अर्थ: किसी व्यक्ति के सुंदर कपड़े देखकर केवल मूर्ख व्यक्ति हीं नहीं बल्कि बुद्धिमान लोग भी धोखा खा जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे मोर के पंख और उसकी वाणी अमृत के जैसी लगती है, लेकिन उसका भोजन सांप होता है।

  • रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु, अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।

अर्थ: तुलसी जी कहते हैं कि, बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये। राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है।

Poems Of Tulsidas

  • सुनहुॅ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ, हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ।

अर्थ: मुनिनाथ ने अत्यंत दुख से भरत से कहा कि जीवन में लाभ नुकसान जिंदगी मौत प्रतिष्ठा या अपयश सभी ईश्वर के हाथों में है।

  • बिना तेज के पुरुष की,अवशि अवज्ञा होय, आगि बुझे ज्यों राख की, आप छुवै सब कोय।

अर्थ: तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है ठीक वैसे हीं जैसे, जब राख की आग बुझ जाती है, तो उसे हर कोई छूने लगता है

  • सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई, सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई। समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं, रवि पावक सुरसरि की नाई।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं, गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता। सूर्य, आग और गंगा की तरह समर्थ व्यक्ति को कोई दोष नही लगाता है।

  • जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना, श्रवण रंध्र अहि भवन समाना।

अर्थ: जिसने अपने कानों से प्रभु की कथा नही सुनी उसके कानों के छेद सांप के बिल के समान हैं।

  • सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ, सब बिधि अगहु अगाध दुराउ। निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई, जानि न जाइ नारि गति भाई।

अर्थ: स्त्री का स्वभाव समझ से परे, अथाह और रहस्यपूर्ण होता है। कोई अपनी परछाई भले पकड ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है।

  • काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच, बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।

अर्थ: करोड़ों उपाय करने पर भी केला काटने पर ही फलता है। नीच आदमी विनती करने से नहीं मानता है. वह डांटने पर ही झुकता रास्ते पर आता है।

  • सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।

अर्थ: मंत्री, चिकित्सक और शिक्षक यदि ये तीनों किसी डर या लालच से झूठ बोलते हैं, तो राज्य,शरीर और धर्म का जल्दी हीं नाश हो जाता है।

  • ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग। होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग।

अर्थ: ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र -ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं। ज्ञानी और समझदार लोग ही इसे जान पाते हैं।

  • नवनि नीच कै अति दुखदाई, जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई। भयदायक खल कै प्रिय वानी, जिमि अकाल के कुसुम भवानी।

अर्थ: नीच ब्यक्ति की नम्रता बहुत दुखदायी होती है. जैसे अंकुश धनुस सांप और बिल्ली का झुकना, दुष्ट की मीठी बोली उसी तरह डरावनी होती है जैसे बिना ऋतु के फूल।

  • विशय जीव पाइ प्रभुताई, मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।

अर्थ: मूर्ख सांसारिक जीव प्रभुता पा कर मोह में पड़कर अपने असली स्वभाव को प्रकट कर देते हैं। tulsidas ke dohe

  • सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।

अर्थ: बिना कारण हीं दूसरों की भलाई करने बाले बुद्धिमान और श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना गलत होता है।

Tulsi Das Famous Dohe In Hindi

  • जिन्ह कें अति मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई। कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।

अर्थ: जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल जिद करके हीं किसी से मित्रता करते हैं। सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोककर सही रास्ते पर चलाता है और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है।

  • काम क्रोध मद लोभ परायन, निर्दय कपटी कुटिल मलायन। वयरू अकारन सब काहू सों, जो कर हित अनहित ताहू सों।

अर्थ: वे काम, क्रोध, अहंकार, लोभ के अधीन होते हैं। वे निर्दयी, छली, कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं। वे बिना कारण सबसे दुशमनी रखते हैं। जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई ही करते हैं। tulsidas ke dohe

  • अवगुन सिधुं मंदमति कामी, वेद विदूसक परधन स्वामी। विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा, दंभ कपट जिए धरें सुवेसा।

अर्थ: वे दुर्गुणों के सागर, मंदबुद्धि, कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला जबरदस्ती दूसरों का धन लूटने वाला, द्रोही विशेषत: ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं। उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिबास बहुत सुन्दर रहता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी के नाम से प्रसिद्ध तुलसीदास जी एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। और बड़े होकर वो एक महान ब्राह्मण संत बने।

उन्होंने संस्कृत और अवधी में कई लोकप्रिय किताबें लिखी हैं, लेकिन उनका सबसे लोकप्रिय एक महाकाव्य रामचरितमानस है, जो संस्कृत रामायण का वर्णन है। और वाल्मीकि सहित कुछ और प्रसिद्ध लेखन के भी वो रचयिता थे। tulsidas ke dohe

  • भानु पीठि सेअइ उर आगी, स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी। tulsidas ke dohe

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये। किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये।

  • tulsidas ke dohe: कबहुॅ दिवस महॅ निविड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग, बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।

अर्थ: बादलों के कारण कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रगट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है, और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है।

  • सोहमस्मि इति बृति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा। आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रमनासा।

अर्थ: मैं ब्रम्ह हूँ, यह अनन्य स्वभाव की प्रचंड लौ है। जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है।

  • tulsidas ke dohe: सेवक सदन स्वामि आगमनु, मंगल मूल अमंगल दमनू।

अर्थ: गोस्वामी जी कहते हैं कि, सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और अमंगलों का नाश करने वाला होता है।

  • धीरज धर्म मित्र अरू नारी, आपद काल परिखिअहिं चारी। बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना, अंध बधिर क्रोधी अतिदीना।

अर्थ: धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री की परीक्षा आपद या दुख के समय होती हैै। बूढ़ा, रोगी, मूर्ख, गरीब, अन्धा, बहरा, क्रोधी और अत्यधिक गरीब सभी की परीक्षा इसी समय होती है।

  • tulsidas ke dohe: रिपु रिन रंच न राखब काउ।

अर्थ: शत्रु और ऋण को कभी भी शेष नही रखना चाहिये। अल्प मात्रा में भी छोड़ना नही चाहिये।

  • tulsidas ke dohe: उमा संत कइ इहइ बड़ाई, मंद करत जो करइ भलाई।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, संत की यही महानता है कि वे बुराई करने वाले पर भी उसकी भलाई ही करते हैं।

  • नयन दोस जा कहॅ जब होइ्र्र।पीत बरन ससि कहुॅ कह सोई, जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा।सो कह पच्छिम उपउ दिनेसा।

अर्थ: जब किसी को आंखों में दोस होता है तो उसे चन्द्रमा पीले रंग का दिखाई पड़ता है। जब पक्षी के राजा को दिशाभ्रम होता है तो उसे सूर्य पश्चिम में उदय दिखाई पड़ता है।

  • काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ। का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ।

अर्थ: अग्नि किसे नही जला सकती है? समुद्र में क्या नही समा सकता है? अबला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है। संसार में काल किसे नही खा सकता है?

  • tulsidas ke dohe: अरि बस दैउ जियावत जाही, मरनु नीक तेहि जीवन चाही।

अर्थ: ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें। उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।

  • साधु अवग्या तुरत भवानी, कर कल्यान अखिल कै हानी।

अर्थ: साधु संतों का अपमान तुरंत संपूर्ण भलाई का अंत नाश कर देता है। tulsidas ke dohe

  • tulsidas ke dohe: कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक। होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, सच्चा ज्ञान कहने समझने में मुश्किल एवं उसे साधने में भी कठिन है। यदि संयोग से कभी ज्ञान हो भी जाता है तो उसे बचाकर रखने में अनेकों बाधायें हैं।

  • tulsidas ke dohe: जद्यपि जग दारून दुख नाना, सब तें कठिन जाति अवमाना।

अर्थ: इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है।

  • कादर मन कहुॅ एक अधारा, दैव दैव आलसी पुकारा। ईश्वर का क्या भरोसा, देवता तो कायर मन का आधार है।

अर्थ: आलसी लोग ही भगवान भगवान पुकारा करते हैं।

  • tulsidas ke dohe: लातहुॅ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।

अर्थ: धूल जैसा नीच भी पैर मारने पर सिर चढ़ जाता है। tulsidas ke dohe.

  • संसार महॅ त्रिविध पुरूश पाटल रसाल पनस समा, एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं।

अर्थ: संसार में तीन तरह के लोग होते हैं-गुलाब आम और कटहल के जैसा। एक फूल देता है। एक फूल और फल दोनों देता है और एक केवल फल देता है। लोगों मे एक केवल कहते हैं, करते नहीं। दूसरे जो कहते हैं वे करते भी हैं और तीसरे कहते नही केवल करते हैं।

  • tulsidas ke dohe: सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती, सहज कृपन सन सुंदर नीती।

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि, मूर्ख से नम्रता दुष्ट से प्रेम कंजूस से उदारता के सुंदर नीति विचार व्यर्थ होते हैं।

Short Story About St Tulsidas Ji

दोस्तों, गोस्वामी तुलसीदास जी भारतीय संस्कृति में भक्ति काल के बहुमहान कवियों में से एक बहुत ही प्रसिद्ध कवि हैं। हम आपको बता दें की, तुलसीदास जी ने ही रामायण ग्रंथ की संरचना सहित अन्य ग्रंथों की भी रचना की थी।

आपको बताना चाहते हैं की, गोस्वामी तुलसीदास जी को रामायण ग्रंथ को सरल भाषा में लिखकर एक बार फिर भारत देश के घर-घर में स्थापित करने के कारण भगवान बाल्मीकि जी का अवतार भी माना जाता है।

tulsi das ke dohe with hindi meaning
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एक तथाकथित इतिहास के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास जी को अपनी पत्नी रत्नावली से बहुत ही ज्यादा प्यार था। प्रचलित इतिहास के अनुसार एक बार तेज बारिश और भयंकर तूफान के बीच वह अपनी धर्मपत्नी से मिलने के लिए अंधेरी रात में ससुराल पहुंच गए।

जिसके वजह से उनकी धर्मपत्नी ने उन्हें कुछ भला बुरा कहा:- जो की निम्नलिखित हैं (“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति। नेक जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।”).

और यहीं से गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन में वैराग्य जागृत हुआ। इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने संन्यास लेकर उन्होंने रामायण ग्रंथ, रामचरितमानस, सहित अन्य ग्रंथों की संरचना की।

गोस्वामि तुलसीदास जी एक महान संत, एवं साधु थे. जिन्हें आज तुलसीदास के नाम से भी जाना जाता हैं। उन्हें रामानंद सम्प्रदाय का सुधारक और दार्शनिक बोलै जाता हैं। तुलसीदास जी एक बहुत महान हिंदी साहित्य के कवि थे।

उन्होंने संस्कृत और अवधियों भाषा मे बहुत सारी प्रसिद कविताये और गोस्वामि तुलसीदास के दोहे लिखे। गोस्वामी तुलसीदास महाकाव्य रामचरितमानों के लेखक के रूप बहुत प्रसिद थे।

तुलसीदास ने अपना आधे से ज्यादा समय उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले मे बिताया जिसके वजह से वाराणसी की गंगा नदी पर एक घाट का नाम तुलसीदास के नाम पर रखा गया हैं। हम आपको कुछ प्रसिद्ध Tulsidas Ke Dohe With Hindi Meaning बता रहे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी के बचपन का का नाम रामबोला था। 5 साल के ही उम्र मे नरहरिदास ने गोसवामी तुलसीदास जी को गोद ले लिया था, उनकी शुरुआती शिक्षा अयोद्ध्या मे हुई थी।

तुलसीदास ने 15-16 साल की उम्र मे संस्कृत व्याकरण, चार वेद, छह वेदांगा, ज्योतिष और हिंदू दर्शन के छह विद्यालयों का अध्ययन किया। तुलसीदास जी की शादी भारद्वाज गोत्र के एक ब्राह्मण दीनबन्दू पाठक की बेटी रत्नावली से हुई थी जो की कौशंबी जिले के मावे गांव से थे।

गोस्वामी तुलसीदास जी और रत्नावली का एक बेटा था। जिनका नाम तारक था, तुलसीदास के लड़के की मृत्यु, जन्म के कुछ दिन बाद ही हो गयी थी।

तुलसीदास जी ने इसके बाद अपनी बीवी को छोड़ दिया था, और सन्यास लेकर एक साधु बन गए थे। तुलसीदास ने त्याग के बाद अपना आधे से ज्यादा जीवन वाराणसी, अयोध्या, प्रयाग, और चित्रकूट में बिताया था, तुलसीदास की मृत्यु वाराणसी मे गंगा नदी के आसी घाट पर 1623 ई० मे हुई थी।

FAQ: Tulsidas Poems / Quotes In Hindi

Que: तुलसीदास द्वारा लिखित रामायण कब थी?

Ans: तुलसीदास ने विक्रम संवत 1631 (1574 ईस्वी) में अयोध्या में रामचरितमानस लिखना शुरू किया।
सही तारीख को कविता के भीतर चैत्र महीने के नौवें दिन कहा जाता है, जो राम, राम नवमी का जन्मदिन है। रामचरितमानस की रचना अयोध्या, वाराणसी और चित्रकूट में हुई थी।

Que: क्या तुलसीदास रामायण सत्य हैं?

Ans: रामायण ऋषि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई थी, जो भगवान राम के समकालीन थे। रामचरितमानस को तुलसीदास ने लिखा था।

Que: राम चरित मानस कब लिखा गया था?

Ans: राम चरित मानस 1633 में लिखा गया था।

Que: रामायण में कितने दोहा हैं?

Ans: सात कांड, रामचरितमानस में सात कांड (शाब्दिक रूप से “पुस्तकें” या “कथानक”, केंटोस के साथ संज्ञानात्मक) शामिल हैं। तुलसीदास ने महाकाव्य के सात कांडों की तुलना सात चरणों में मानसरोवर झील के पवित्र जल में की “जो शरीर और आत्मा को एक ही बार में शुद्ध करता है”।

Last Word:

गोस्वामी तुलसीदास जी को भगवान् श्री राम की भक्ति और उनके प्रति प्रेम के लिए जानना जाता है। तुलसीदास जी अपने जीवनकाल में कई महान रचनाएँ की।

“रामचरितमानस” के रचियता भी गोस्वामी तुलसीदास जी ही थे, उन्हें विश्व साहित्य के सबसे महान कवियों में से एक माना जाता है।

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